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Jagran Junction fourum नये चेहरे ही बदल सकते हैं राजनीति की दिशा !
किसी धर्म ग्रंथ में कही भी कोई गलत शिक्षा नही दी गई है , किन्तु धार्मिक अंधानुकरण व गलत विवेचना तथा अपने धर्म को दूसरे से श्रेष्ठ बताने की प्रतिस्पर्धा में भारत ही नही सारी दुनिया में सदा से झगड़े फसाद होते रहे हैं , ठीक इसी तरह प्रत्येक राजनैतिक दल का लिखित उद्देश्य आम आदमी के हितकारी कार्य करने का ही होता है , पर उसी पावन उद्देशय की आड़ में जो स्वार्थ की गंदी राजनीति खेली जाती है उससे ५ वर्षो में मायावती की माया अरबो में पहुंच जाती है , या टेलीकाम घोटाले जैसे विवादास्पद निर्णय लिये जाते हैं , खनन माफिया या भूमि माफिया सरकारी संपत्ति को कौड़ियो में हथिया लेता है . वोट देने वाले हर बार ठगे जाते हैं . अगले चुनावो में वे चार चेहरो में से फिर किसी दूसरे चेहरे को चुनकर परिवर्तन की उम्मीद करते रह जाते हैं …. लेकिन यदि कार ही खराब हो तो ड्राइवर कोई भी बैठा दिया जावे , कार कमोबेश वैसे ही चलती है . यह हमारे लोकतंत्र की एक कड़वी सचाई है . हमें इन्ही सीमाओ के भीतर व्यवस्था में सुधार करने हैं . अन्ना जैसे नेता जब आमूल चूल संवैधानिक व्यवस्था में परिवर्तन की पहल करते हैं तो , लालू जैसे राजनेता तक बाबा अंबेडकर की सोच से उपजी संवैधानिक व्यवस्था में रत्ती भर भी सामयिक परिवर्तन स्वीकार नही कर पाते और येन केन प्रकारेण ऐसे आंदोलन ठप्प कर दिये जाते हैं , क्योकि इस व्यवस्था में राजनेताओ के पास प्याज के छलको की तरह चेहरे बदलने की क्षमता है .
ऐसी स्थितियो में भी इतिहास गवाह है कि जब जब युवा , नये नेतृत्व ने झंडा संभाला है , कुछ न कुछ सकारात्मक कार्य हुये हैं .चाहे वह राजीव गांधी द्वारा की गई संचार क्रांति रही हो या क्षेत्रीय दलो के नेतृत्व में हुये राज्य स्तरीय परिवर्तन हो . गुजरात का नाम यदि आज देश के विकसित राज्यो में लिया जाता है तो इसमें नरेंद्र मोदी की नेतृत्व क्षमता का बड़ा हाथ है . हमने अपने नेता में जो अनेक शक्तियां केंद्रित कर रखी हैं उसी का परिणाम है कि राजनीति आज सबसे लोकलुभावन व्यवसाय बन गया है .राजनेताओ के गिर्द जो स्वार्थी उद्योगपतियो , और बाहुबलियो की भीड़ जमा रहती है उसका बड़ा कारण यही सत्ता है . आज शुद्ध सेवा भाव से राजनीति कर रहे नेता अंगुलियो पर गिने जा सकते हैं .
हर सरकार किसानो के नाम पर बजट बनाती है पर जमीनी सच यह है कि आज भी वास्तविक किसान आत्म हत्या करने पर मजबूर हो जाता है . सरकारी सुविधाओ को लेने के लिये जो मशक्कत करनी पड़ती है उसे देखते हुये लगता है कि यदि किसान स्वयं समर्थ हो तो शायद वह ये सब्सिडी लेना भी पसंद न करे . यही कारण है कि आज सरकारी स्कूलो की अपेक्षा लोग बच्चो को निजी कांवेंट स्कूलो में पढ़ा रहे हैं , सरकारी अस्पतालो की अपेक्षा निजी अस्पतालो में भीड़ है . सरकारें आरक्षण के नाम पर वोटो का ध्रुवीकरण करने और वर्ग विशेष को अपना पिछलग्गू बनाने का प्रयास करती नही थकती पर क्या आरक्षण की ऐसी विवेचना संविधान निर्माताओ की भावना के अनुरूप है ? क्या इससे नये वर्ग संघर्ष को जन्म नही दिया जा रहा ?
मंहगाई सुरसा के मुख की तरह बढ़ रही है , आम आदमी फिर फिर से अपनी बढ़ी हुई चादर में भी अपने पैर सिकोड़ने को मजबूर हो रहा है ! व्यापक दृष्टिकोण से यह हमारे राजनैतिक नेतृत्व की असफलता का द्योतक ही है . राजनेताओ की नैतिकता का स्तर यह है कि बड़े से बड़े आरोप के बाद भी बेशर्मी से पहले तो उसे नकारना , फिर अंतिम संभव क्षण तक कुर्सी से चिपके रहना और अंत में हाइकमान के दबाव में मजबूरी में नैतिकता का आवरण ओढ़कर इस्तीफा देना प्रत्येक राजनैतिक दल में बहुत आम व्यवहार बन चुका है . राजनेताओ के एक गलत निर्णय से पीढ़ीयां तक प्रभावित होती है . मुफ्त बिजली , कब्जाधारी को जमीन का पट्टा, अस्थाई सेवाकर्मियो को नियमित किया जाना आदि ऐसे ही कुछ विवादस्पद निर्णय थे जो ९० के दशक में म.प्र. में स्व. अर्जुन सिंग ने लिये थे , उन्होने जनता की तात्कालिक वाहवाही लूटी , चुनाव भी जीते उनकी देखादेखी अन्य राज्यो में भी यही सब दोहराया गया . इसकी अंतिम परिणिति क्या है ? देश में अराजकता का माहौल विकसित हुआ . आज बिजली क्षेत्र की कमर टूटी हुई है जिसे पटरी में लाने के लिये देश को विदेशी बैंको से अरबो का कर्जा लेना पड़ रहा है . चंद्र बाबूनायडू को आंध्रा में अपनी सत्ता विद्युत सुधार के प्रयासो के कारण ही गंवानी पड़ी थी .
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उ. प्र. में अखिलेश यादव के युवा नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की जीत से आशा है कि वहां राजनीति की दिशा बदलेगी . समाजवादी पार्टी गुंडा राज के लिये पहचानी जाने लगी थी , क्योकि गद्दीनशीन होने के लिये तत्कालीन समाजवादी नेताओ जिनमें स्वयं मुलायम जी भी शामिल हैं ने दबंगो का सहारा लिया था . पर अखिलेश को ऐसी स्वीप विक्ट्री की स्वयं ही अपेक्षा नही थी एवं दबंगो से उनके वैसे कनेक्शन भी नही हैं अतः वे जनता के इस फैसले के बाद कड़े तरीको से अपनी ही पार्टी के दबंगो से निपट सकते हैं , यह आशा करनी चाहिये . यदि अखिलेश को लंबे समय तक शासन करना है , और उनका लक्ष्य केंद्र तक समाजवादी पार्टी को बेहतर बनाने का है तो उ प्र में सुशासन उनकी राजनैतिक मजबूरी है , और इसके लिये उन्हें पार्टी के पुराने दबंगो से किनारा करना ही पड़ेगा . मेरा मानना है कि नये चेहरे ही राजनीति की दिशा बदल सकते हैं और अखिलेश के रूप में जनता ने यूपी को एक बिलकुल नया साफ चेहरा दिया है , अब बारी समाजवादियो और अखिलेश की है , क्या होगा यह तो समय ही बतायेगा , पर आशा से संसार टिका है , और मै सदा से युवाओ के आक्रोश का पक्षधर रहा हूं . नई कोंपलें फूट चुकी हैं , देखे कि कितनी हरियाली आती है .
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर जबलपुर
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