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”शिक्षा जीवन की तैयारी है न कि केवल व्यवसाय प्रदाता”
विवेक रंजन श्रीवास्तव
ओ बी ११ , विद्युत मण्डल कालोनी , जबलपुर
स्वामी विवेकानन्द ने शिक्षा का प्रयोजन बताते हुए कहा था, ”शिक्षा का अर्थ है पूर्णता की अभिव्यक्ति”, मनुष्य की चेतना प्रत्येक स्तर ‘शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक’ पर विकसित हो उनके अनुसार शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य है, चरित्र निर्माण .शिक्षा के गाँधीवादी चिंतन में भी शिक्षा का अनिवार्य माध्यम है स्वभाषा और पहली शर्त है धर्म और नीति की शिक्षा . ऐसी शिक्षा जो चरित्र का विकास करे, सकारात्मक मूल्यों का आधान करे, चरित्र की कमियों को दूर करके उसे परिष्कृत करने का कार्य करे . यही धर्म का भी उद्देश्य होता है. सारा ज्ञान हममें समाहित है, शिक्षा उसे अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया है. इन्ही अर्थो में गांधी जी कहते हैं ”शिक्षा जीवन की तैयारी है।”
विगत कुछ दशको में शिक्षा को व्यवसाय प्रदाता के रूप में ही देखा जाने लगा है . व्यवसायिक शिक्षा शालेय पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गई है , और महाविद्यालयीन स्तर पर तो कालेज की रैंकिंग ही इस आधार पर होने लगी है कि वहां कितने कैंपस सेलेक्शन होते है , तथा कितने का पेकेज मिलता है ? शिक्षा की हमारी यह संस्थानिक व्यवस्था सिर्फ एक निश्चित पाठ्यक्रम में छात्रो को निपुण कर देती है और शिक्षा के पहले व अनिवार्य मोर्चे, चरित्र निर्माण पर चूक जाती है . जिसका परिणाम समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और आपाधापी है .देश के बड़े पदों पर आसीन उच्च शिक्षा प्राप्त अधिकारियों व नेतओ के भ्रष्टाचार में संलिप्त होने की घटनायें प्रायः सुनने में आती रहती हैं.
हम सबको कभी न कभी किसी भागवत कथा के पाण्डाल में जाने का अवसर मिला ही है ,न भी मिला हो तो कभी किसी धार्मिक चैनल पर किसी संत का कोई संभाषण हमने अवश्य सुना होगा . पल भर को ही सही किन्तु वक्ता की कोई न कोई बात हमें मर्म तक स्पर्श अवश्य करती है . सभा और भाषण का महत्व लोकतांत्रिक व्यवस्था में हमसे ज्यादा कौन जानता है , एक सफल सभा चुनावो में मतदाताओ का रुझान ही बदल देती है . ऐसी स्थिति में कल के भारत के निर्माता छात्रों के साथ शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य को सामने रखकर विष्णु शर्मा की पंचतंत्र की कहानियों को दोहराने की जरूरत है . महात्मा बुद्ध के आख्यान से हिंस्र अंगुलीमाल अहिंसक बन सकता है , कोई चाण्डाशोक, अशोक महान बन सकता है , तो प्रेरक कथानको का हमारे जीवन में हमारी वैचारिक सोच को बदलने में , महत्व निर्विवाद है . विद्यालयो में सुबह की प्रार्थना के समय छात्रो को ध्यानस्थ अवस्था में प्रेरक कहानियां , सकारात्मक संस्मरण , महापुरुषो की जीवनियां उद्बोधन व आख्यान के रूप में सुनाकर उनका भावान्तरण किया जा सकता है . हमारे वेद, उपनिषद, पुराण , इतिहास और आधुनिक विज्ञान की घटनायें सकारात्मक उद्धरणों से लबरेज हैं . ऋषि कुल की परम्परा के अनुरूप , गुरू और शिष्य के बीच स्थापित तादात्म्य से उपजी वैचारिक सभायें नित नवीन सम्भावनाओं को जन्म दे सकती हैं. उद्बोधन कथाओं और प्रेरक प्रसंगो के माध्यम से छात्रों के व्यक्तित्व निर्माण का प्रयास किया जाना , शिक्षा व्यवस्था में शामिल हो यह चिंतन व क्रियांवयन का विषय है .
स्कूल की प्रार्थना सभा में छात्रों को सीखने और संस्कारित होने का परिवार जैसा अवसर प्राप्त हो , यह समय की आवश्यकता लगती है , क्योकि नई पीढ़ी में एकल परिवारो के चलते दादी नानी की कहानियां गुम हो चुकी हैं . बच्चो के जीवन में उनकी जगह टीवी के फैंटेसी कार्यक्रमो ने ले ली है . एक संस्थानिक व्यवस्था में रहते हुये भी छात्रों के बौद्धिक और नैतिक स्तरोन्नयन के द्वार ऐसे उद्बोधन से खोले जा सकते है. व्यक्तिगत स्तर पर अपने घर परिवार , मोहल्ले , चौपाल , और जो शिक्षक यह चिंतन पढ़ रहे हैं वे अपनी शालाओ में प्रेरक प्रसंगो की किस्सागोई प्रारंभ करके नई पीढ़ी को संस्कारित करने का अभियान शुरू कर सकते हैं . …..विवेक रंजन श्रीवास्तव
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