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शिक्षक हो तो ऐसे हो …..

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मिसाल

शिक्षक हो तो ऐसे हो ……
शिक्षक दम्पति प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव लेखक कवि ,अनुवादक,अर्थशास्त्री ,समाज सेवक एवं स्व.श्रीमती दयावती श्रीवास्तव, सेवानिवृत प्राचार्या

मैं अपने पिताजी प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव माँ श्रीमती दयावती श्रीवास्तव के साथ जब भी कहीं जाता तो मैं तब आश्चर्य चकित रह जाता , जब मैं देखता कि अचानक ही कोई युवती , कभी कोई प्रौढ़ा ,कोई सुस्संकृत पुरुष आकर श्रद्धा से उनके चरणस्पर्श करता है .सर /मैम, आपने मुझे पहचाना ? आपने मुझे फलां फलां जगह , अमुक तमुक साल में पढ़ाया था ….!प्रायः महिलाओ में उम्र के सा्थ हुये व्यापक शारीरिक परिवर्तन के चलते माँ अपनी शिष्या को पहचान नहीं पाती थी , पर वह महिला बताती कि कैसे उसके जीवन में यादगार परिवर्तन माँ या पिताजी के कठोर अनुशासन अथवा उच्च गुणवत्ता की सलाह या श्रेष्ठ शिक्षा के कारण हुआ …. वे लोग पुरानी यादों में खो जाते . ऐसे १, २ नहीं अनेक संस्मरण मेरे सामने घटे हैं .कभी किसी कार्यालय में किसी काम से जब मैं पिताजी के साथ गया तो अचानक ही कोई अपरिचित पिताजी के पास आता और कहता , सर आप बैठिये , मैं काम करवा कर लाता हूँ …वह पिताजी का शिष्य होता .

१९५१ में जब मण्डला जैसे छोटे स्थान में मम्मी पापा का विवाह लखनऊ में हुआ , पढ़ी लिखी बहू मण्डला आई तो , दादी बताती थी कि मण्डला में लोगो के लिये इतनी दूर शादी , वह भी पढ़ी लिखी लड़की से ,यह एक किंचित अचरज की बात थी .उपर से जब जल्दी ही मम्मी पापा ने विवाह के बाद भी अपनी उच्च शिक्षा जारी रखी तब तो यह रिश्तेदारो के लिये भी बहुत सरलता से पचने जैसी बात नहीं थी . फिर अगला बमबार्डमेंट तब हुआ जब माँ ने शिक्षा विभाग में नौकरी शुरू की . हमारे घर को एतिहासिक महत्व के कारण महलात कहा जाता है , “महलात” की बहू को मोहल्ले की महिलाये आश्चर्य से देखती थीं . उन दिनों स्त्री शिक्षा , नारी मुक्ति की दशा की समाज में विशेष रूप से मण्डला जैसे छोटे स्थानो में कोई कल्पना की जा सकती है . यह सब असहज था .
अनेकानेक सामाजिक , पारिवारिक , तथा आर्थिक संघर्षों के साथ माँ व पिताजी ने मिसाल कायम करते हुये नागपुर विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेज्युएशन तक की पढ़ाई स्व अध्याय से प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में साथ साथ बेहतरीन अंको के साथ पास की . तब सीपी एण्ड बरार राज्य था , वहाँ हिन्दी शिक्षक के रूप में नौकरी करते हुये , घर पर छोटे भाईयों की शिक्षा के लिये रुपये भैजते हुये , स्वयं पढ़ना , व अपना घर चलाना , तब तक मेरी बड़ी बहन का जन्म भी हो चुका था , सचमुच मम्मी पापा की परस्पर समर्पण , प्यार व कुछ कर दिखाने की इच्छा शक्ति , ढ़ृड़ निश्चय का ही परिणाम था .मां बताती थी कि एक बार विश्वविद्यालय की परीक्षा फीस भरने के लिये उन्होंने व पापा ने तीन रातो में लगातार जागकर संस्कृत की हाईस्कूल की टैक्सट बुक की गाईड लिखी थी, प्रकाशक से मिली राशि से फीस भरी गई थी …सोचता हूँ इतनी जिजिविषा हममें क्यों नहीं … प्रांतीय शिक्षण महाविद्यालय तत्कालीन पीएसएम से , साथ साथ बी.टी का प्रशिक्षण फिर म.प्र. लोक सेवा आयोग से चयन के बाद म.प्र. शिक्षा विभाग में व्याख्याता के रूप में नौकरी ….मम्मी पापा की जिंदगी जैसे किसी उपन्यास के पन्ने हैं …. अनेक प्रेरक संघर्षपूर्ण , कारुणिक प्रसंगों की चर्चा वे करते हैं , “गाड हैल्पस दोज हू हैल्प देम सेल्फ”.आत्मप्रवंचना से कोसो दूर , कट्टरता तक अपने उसूलों के पक्के , सतत स्वाध्याय में निरत वे सैल्फमेड हैं ..
जीवन में जितने व्यैक्तिक व सामाजिक परिवर्तन मां पिताजी ने देखे अनुभव किये हैं , बिरलों को ही नसीब होते हैं . उन्होंने आजादी का आंदोलन जिया है . लालटेन से बिजली का बसंत देखा है , हरकारे से इंटरनेट से चैटिग के संवाद युग परिवर्तन के वे गवाह हैं … , शिक्षा के व्यवसायीकरण की विडम्बना , समाज में नैतिक मूल्यों का व्यापक ह्रास , भौतिकवाद , पाश्चात्य अंधानुकरण यह सब भी किंकर्तव्यविमूढ़ होकर देखना उनकी पीढ़ी की विवशता है जिस पर उनका क्षोभ स्वाभाविक ही है ….

तमाम कठिनाईयों के बाद भी न केवल मम्मी पापा ने अपना स्वयं का जीवन आदर्श बनाया वरन हमारे लिये एक उर्वरा पृष्ठभूमि तैयार कर दी . हमारे लिये ही क्या, जो भी उनके संपर्क में आता गया छात्रो के रूप में , परिवार में या समाज में ,सबको उन्होंने एक आदर्श राह बतलाई है . आज भी हमारे बच्चो के लिये पिताजी प्रेरक दिशादर्शक हैं . हमारे परिवार की आज की सुढ़ृड़ता के पीछे माँ का जीवन पर्यंत संघर्ष है . स्वयं नौकरी करते हुये अनेक बार पिताजी का अंयत्र स्थानातरण हो जाने पर मुझे , मेरी दीदी तथा दो छोटी बहनों को सुशिक्षित करना माँ , पापा की असाधरण तपस्या का ही प्रतिफल है .मुझे लगता है कि कितने पुष्प प्रफुल्लित होते देख न हम जिनको पाते …. माता पिता के रूप में भी एक आदर्श शिक्षक की भूमिका का निरंतर निर्वहन मम्मी पापा ने किया है .

पिताजी प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव विदग्ध शासकीय शिक्षण महाविद्यालय जबलपुर से सेवानिवृत हुये . वे केंद्रीय विद्यालय क्रमाँक १ जबलपुर के संस्थापक प्राचार्य रहे हैं . वतन को नमन , अनुगुंजन , ईशाराधन , जैसी अनेको पुस्तको के लेखक, महाकवि कालिदास कृत रघुवंश व मेघदूतम का श्लोकशः अनुवाद उन्होने गेय छंदो में किया है .हाल में ही उनकी नई कृति श्रीमद्भगवत गीता का हिन्दी पद्यानुवाद प्रकाशित हुआ है जिसकी आध्यात्मिक व साहित्य जगत में व्यापक प्रशंसा व चर्चा हो रही है . शिक्षण में नवाचार व अन्य शैक्षणिक विषयो पर कई किताबें उन्होने लिखी है . कई पत्र पत्रिकाओ का संपादन किया है . अनेक संस्थाओ ने उन्हें समय समय पर ढ़ेरों सम्मान दिये .रिटायरमेंट के बाद भी भारतीय यूनिट ट्रस्ट के माध्यम से पिताजी ने अनेक युवको को मण्डला में रोजगार के अवसर दिये , रेडक्रास में , पं . बाबूलाल कमेटी के अध्यक्ष के रुप में ,अनेकानेक सामाजिक संस्थाओ में वे सतत सक्रिय हैं .
वर्तमान परिवेश में शिक्षा शासकीय क्षेत्र से हटकर निजि क्षेत्र में एक व्यवसाय के रूप में स्थापित होती जा रही है , इस कारण एवं शिक्षकों के आचरण की शुचिता में कमी के चलते गुरुओ के प्रति छात्रो की कृतज्ञता समाप्त प्राय है .ऐसे समय में मैं शिक्षक दिवस पर अपने समस्त शिक्षकों के प्रति अपनी
आदरांजली अर्पित करते हुये ,अपने पूज्य माता पिता शिक्षक दम्पति प्रो. सी. बी .श्रीवास्तव लेखक कवि ,अनुवादक,अर्थशास्त्री ,समाज सेवक एवं स्व.श्रीमती दयावती श्रीवास्तव, सेवानिवृत प्राचार्या के जीवन वृत को देख मैं यही दोहराना चाहता हूँ ,शिक्षक हो तो ऐसे हो ……

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