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बिजली को लेकर कुछ नवोन्मेषी प्रयोग

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बिजली को लेकर कुछ नवोन्मेषी प्रयोग

Vivek ranjan shrivastava
Ob 11 , mpeb colony , Rampur , Jabalpur
Mo 9425806252

बिजली के क्षेत्र में अनुसंधान की व्यापक संभावनायें हैं . हम आज भी लगभग उसी आधारभुत तरीके से बिजली उत्पादन , व वितरण कर रहे हैं जिस तरीके से सौ बरस पहले कर रहे थे . दुनिया की सरकारो को चाहिये कि बिजली के क्षेत्र में अन्वेषण का बजट बढ़ायें . वैकल्पिक स्रोतो से बिजली का उत्पादन , बिना तार के बिजली का तरंगो के माध्यम से वितरण , बिजली को व्यवसायिक तौर पर एकत्रित करने के संसाधनो का विकास , कम बिजली के उपयोग से अधिक क्षमता की मशीनो का संचालन , अनुपयोग की स्थिति में विद्युत उपकरणो का स्व संचालन से बंद हो जाना , दिन में बल्ब इत्यादि प्रकाश श्रोतो का स्वतः बंद हो जाना आदि बहुत से अनछुऐ बिन्दु हैं जिन पर ध्यान दिया जावे तो बहुत कुछ नया किया जा सकता है तथा वर्तमान संसाधनो को सस्ता व अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है . हर घर में शौचालय होता है , जो बायो गैस का उत्पादक संयत्र बनाया जा सकता है , जिससे घर की उर्जा व प्रकाश की जरूरत पूरी की जा सकती है . कुछ युवा छात्रो ने रसोई के अपशिष्ट से भी बायोगैस के जरिये चूल्हा जलाने के प्रयोग किये हैं . कुछ लोगो ने व्यक्तिगत स्तर पर तो कुछ संस्थाओ ने अभिनव प्रयोग बिजली को लेकर किये भी हैं , जरूरत है कि इस दिशा में व्यापक कार्य हो . भारत के हरीश हांडे,को मैग्सेसे अवार्ड दिया गया है जिन्होंने अपनी कंपनी सेल्को के माध्यम से लाखों ग़रीबों तक सौर ऊर्जा की प्रौद्योगिकी पहुंचाई है , इसीतरह इण्डोनेशिया की मुनीपुनी को लघु पन बिजली योजनाओ के क्रियान्वयन के लिये मैग्सेसे अवार्ड दिया गया है , ये संकेत है कि उर्जा के क्षेत्र में समाज नवोन्मेषी प्रयासो की सराहना कर रहा है .
कृषि अवशेष से 18 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन संभव

भारत अतिरिक्त कृषि अवशेष का इस्तेमाल कर 18 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन कर सकता है. लोक सभा में एक सवाल के जवाब में ऊर्जा मंत्री ने यह जानकारी दी थी . ”आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, और पश्चिम बंगाल में यह संभावना है कि वे जैव ईंधन के लिए 100 मेगावाट तक के ऊर्जा संयंत्र लगा सकते हैं . इस तरह देश में अनुमानित अतिरिक्त कृषि अवशेष से 18 हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है. ”
कई राज्यों में स्थित चीनी मिलों के अवशेषों से पांच हजार मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जा सकता है. इसी तरह गन्ने और इससे मिलते-जुलते पौधों से रस निकाले जाने बाद भी इससे बिजली उत्पादन संभव है. सीमेंट व स्टील उत्पादन संयत्रो में कोजनरेशन इकाईयो से सह उत्पाद के रूप में बिजली भी प्रचुर मात्रा में बनाई जा सकती है .
वैकल्पिक ऊर्जा की राह अख्तियार करने के मामले में देश के मंदिर भी पीछे नहीं हैं. आंध्र प्रदेश का तिरुमला मंदिर का बड़ा नाम है. यहां हर रोज तकरीबन पांच हजार लोग आते हैं. अब इस मंदिर में खाना और प्रसाद बनाने के लिए सौर ऊर्जा पर आधारित तकनीक अपनाई जा रही है. इसके अलावा यहां सौर प्लेटों के जरिए भी बिजली की आपूर्ति की जा रही है. इन बदलावों की वजह से यहां से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में भारी कमी आई है. इस मंदिर में सौर ऊर्जा तकनीक की सफलता से प्रेरित होकर राज्य के अन्य मंदिरों ने भी ऐसी तकनीक को अपनाना शुरू कर दिया है.
बायोमास गैसिफ़िकेशन से बिजली
ये एक ऐसी तकनीक है जिसमें ईंधन के तौर पर बायोमास का इस्तेमाल किया जाता है और उससे पैदा हुई गैस को जलाकर बिजली बनाई जा सकती है.पटना से बाहर का इलाका धान की खेती के लिए मशहूर है और खेती के बाद कचरे के रुप में धान की भूसी इस इलाके में बहुतायत में मौजूद थी.
ऐसे में रत्नेश यादव व उनके सा्ियो ने ईंधन के तौर पर धान की भूसी का ही इस्तेमाल करने का फ़ैसला किया. अपनी इस परियोजना को उन्होने ‘हस्क पावर सिस्टम्स’ का नाम दिया.लालटेन और ढिबरी की रोशनी में जी रहे गांववालों को एकाएक इस नए तरीके पर विश्वास नहीं हुआ, लेकिन आधी से भी कम कीमत पर मिल रही बिजली की सुविधा को जल्दी ही उत्साह से सवीकारा गया . आमतौर पर गांव में हर घर दो से तीन घंटे लालटेन या ढिबरी जलाने के लिए कैरोसीन तेल पर 120 से 150 रुपए खर्च करता है.ऐसे में ‘हस्क पावर सिस्टम्स’ के ज़रिए गांववालों को 100 रुपए महीना पर छह घंटे रोज़ के लिए दो सीएफएल जलाने की सुविधा दी गई . साल 2007 में ‘हस्क पावर सिस्टम्स’ की पहली कोशिश क़ामयाब हुई. बिहार के ‘तमकुआ’ गांव में धान की भूसी से बिजली पैदा करने का पहला प्लांट लगया और गांव तक रौशनी पहुंचाई. संयोग से ‘तमकुआ’ का मतलब होता है ‘अंधकार भरा कोहरा’ और इस तरह 15 अगस्त 2007 को भारत की आज़ादी की 60वीं वर्षगांठ पर ‘तमकुआ’ को उसके अंधेरे से बिहार के कुछ युवाओ ने आज़ादी दिलाई.तमसो मा ज्योतिर्गमय के इस अभियान को साल 2011 में ‘एशडेन पुरस्कार’ से भी नवाज़ा गया. कचरे से बिजली ७त्पादन की यह तकनीक प्रत्येक महानगर के कचरे को बिजली में बदलने हेतु विकसित की जा सकती है .

चरखा बना बिजली उत्पादन का जरिया
राजस्थान के जयपुर के पास के कुछ गांवों में चरखा ही बिजली उत्पादन का जरिया बन गया है। महात्मा गांधी ने कभी चरखे को आत्मनिर्भरता का प्रतीक बताया था। आज गांधी के उसी संदेश को एक बार फिर राजस्थान के कुछ लोगों ने पूरे देश को देने की कोशिश की है.
इस चरखे को ई-चरखा का नाम दिया गया है. इसे एक गांधीवादी कार्यकर्ता एकंबर नाथ ने बनाया है .जब इस चरखे को दो घंटे चलाया जाता है तो इससे एक विशेष प्रकार के बल्ब को आठ घंटे तक जलाने के लिए पर्याप्त बिजली का उत्पादन हो जाता है. यहां यह बताते चलें कि बिजली बनाने के लिए अलग से चरखा नहीं चलाना पड़ता बल्कि सूत कातने के साथ ही यह काम होता रहता है . इस तरह से कहा जाए तो ई-चरखा यहां के लोगों के लिए दोहरे फायदे का औजार बन गया है.
सूत कातने से आमदनी तो हो ही रही है साथ ही साथ इससे बनी बिजली से घर का अंधियारा भी दूर हो रहा है. राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में चरखा चलाने के काम में महिलाओं की भागीदारी ही ज्यादा है. कई महिलाएं तो ऐसी भी हैं जो बिजली जाने के बाद जरूरत पड़ने पर घर में रोशनी बिखेरने के लिए चरखा चलाना शुरू कर देती हैं.
इस खास चरखे को राजस्थान में एक सरकारी योजना के तहत लोगों को उपलब्ध कराया जा रहा है. इसकी कीमत साढ़े आठ हजार रुपए है. बिजली बनाने के लिए इसके साथ अलग से एक यंत्र जोड़ना पड़ता है . जिसकी कीमत पंद्रह सौ रुपए है. सरकारी योजना के तहत इसे खरीदने के लिए पचहत्तर प्रतिशत आर्थिक सहायता दी जा रही है. बाकी पचीस प्रतिशत पैसा खरीदार को लगाना पड़ता है जिसे किस्तों में अदा करने की व्यवस्था है.

कुल्हड़ों में बन रही है गोबर से बिजली
गोबर गैस प्लांट से बिजली बनाना तो सबको मालूम है. लेकिन कुल्हड़ में गोबर से बिजली पैदा करने का अनोखा प्रयोग हो रहा है, बाराबंकी जिले के एक गॉव में.
यह गाँव है पूरेझाम तिवारी जो सुलतानपुर रोड पर हैदरगढ़ कस्बे से पाँच किलोमीटर की दूरी पर है.
यह प्रयोग शुरू किया है एक युवा किसान ब्रजेश त्रिपाठी ने, जिनकी शैक्षिक योग्यता ‘इंटर पास, बीए इनकम्पलीट (यानी अधूरा) है.’
ग्राम पूरेझाम के खेतों से बिजली की बड़ी लाइन गुजरती है. गाँव में बिजली देने के लिए कुछ साल पहले खंभे भी गड़ गए थे. लेकिन न तार खिंचे, न बिजली आई.
राशन की दूकान से मिट्टी तेल महीने में प्रति परिवार केवल दो लीटर मिलता है. इसीलिए रोशनी का इंतज़ाम एक मुश्किल काम है.
ब्रजेश त्रिपाठी का कहना है, “करीब दो महीने पहले मैंने पेपर में पढ़ा था कि ऐसा हो सकता है. उसको प्रैक्टिकल करके देखा तो लाइट जल गई, जल गई तो फिर बाजा भी लगाकर देखा गया कि जब लाइट जली तो बाजा भी चलना चाहिए.”
वे कहते हैं, “संयोग से एक दिन हमने कहा देखते हैं, मोबाइल भी चार्ज हो जाएगा या नहीं, तो धीरे-धीरे आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं.”
इस तरह बिजली बनाने के लिए वह झालर वाले सस्ते चीनी बल्व और बेकार हुए तीन बैट्री सेल लेते हैं. बैट्री सेल का कवर उतार कर उसमें पाजिटिव निगेटिव तार जोड़ देते हैं और फिर इन्हें अलग-अलग तीन कुल्हड़ में भरे गोबर के घोल में डाल देते हैं. इस घोल में थोड़ा सा नमक, कपड़ा धोने का साबुन या पाउडर मिला देते हैं.
इस तरह घर बैठे रोशनी पैदा करने का प्रयोग सफल देख पूरेझाम में घर-घर लोग बिजली बनाने लगे. आसपास के सैकड़ों गाँवों में भी लोग इस तरह लाइट जला रहे हैं.
इसी गाँव के सदाशिव त्रिपाठी का कहना है, “जो बैट्री सेल हम बेकार समझकर फेंक देते थे. उन्हीं को अब गोबर के साथ इस्तेमाल करके बिजली बना रहे हैं.”
बिजली बनाने का यह फार्मूला गाँव के छोटे-छोटे बच्चों को भी समझ में आ गया है. बच्चों का कहना है कि इस लाइट से पढ़ाई में बहुत मदद मिलती है. इसकी रोशनी लालटेन जैसी है.
इस तरह सस्ती और आसान बिजली मिलने से गाँव वाले प्रसन्न और आश्चर्यचकित हैं, हालांकि उनको यह नहीं मालूम कि कुल्हड़ भर गोबर और पुराने बैट्री सेल में ऐसी कौन सी रासायनिक क्रिया होती है, जिससे बिजली बनती है. गाँव वालों को उम्मीद है कि जब तकनीकी जानकार लोग इस प्रयोग में हाथ लगाएंगे तो एक बेहतर टेक्नॉलॉजी बनकर तैयार होगी.दरसल यह विद्युत सैल के रूप में विद्युत उत्पादन का छोटा सा नमूना है .

नर्मदा नदी के बरगी बांध डूब क्षेत्र के ग्राम खामखेड़ा में एचसीएल कम्प्यूटर के संस्थापक सदस्य पदम्भूषण अजय चौधरी के आर्थिक सहयोग से सौर्य उर्जा से रात में उजाला ही उजाला …

जबलपुर के छायाकार रजनीकांत यादव पेशे से भले ही एक फोटोग्राफर हैं पर उनके अंदर एक वैज्ञानिक व संवेदनशील मनुष्य है , सालो की मेहनत से सोलर विद्युत व्यवस्था पर काम करके गांव की छोटी सी बस्ती को रोशन करने की तकनीक उन्होने विकसित की है जिसे एचसीएल कम्प्यूटर के संस्थापक सदस्य पदम्भूषण अजय चौधरी के आर्थिक सहयोग से मूर्त रूप दिया गया और परिणाम स्वरूप ७ अक्टूबर १२ को खामखेड़ा गांव , रात में भी सूरज की रोशनी से नन्हें नन्हें एल ई डी के प्रकाश के रूप में नहा उठा .
अब तक मिट्टी का तेल ही गांव में रोशनी का सहारा था , प्रति माह हर परिवार रात की रोशनी के लिये लालटेन , पैट्रोमेक्स या ढ़िबरी पर लगभग १५० से २०० रुपये खर्च कर रहा था . विद्युत वितरण कंपनी यहां बिजली पहुचाना चाहती है पर केवल ३० घरो के लिये पहुंच विहीन गांव में लंबी लाइन डालना कठिन और मंहगा कार्य था , इसके चलते अब तक यह गांव बिजली की रोशनी से दूर था . वर्तमान में म. प्र. में ऐसे बिजली विहीन लगभग ७०० गांव हैं . नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री, मप्र शासन अजय विश्नोई ने कहा कि यदि इस गांव को रोशन करने वाले सरकार से सहयोग करें तथा यह तकनीक प्रायोगिक रूप से सफल पाई जावे तो इन गांवो को रोशनी देने के लिये भी यही तकनीक सहजता से अपनाई जा सकती है . गांव के निवासियो को उद्घाटन के अवसर पर गुल्लक बांटी गई है , आशय है कि वे प्रतिदिन मिट्टीतेल से बचत होने वाली राशि संग्रहित करते जावें जिससे कि योजना का रखरखाव किया जा सके. सोलर सैल से रिचार्ज होने वाली जो बैटरी गांव वालो को दी गई है , उसकी गारंटी २ वर्ष की है , इन दो बरसो में जो राशि मिट्टी तेल की बचत से एकत्रित होगी उन लगभग ३६०० रुपयो से सहज ही नई बैटरी खरीदी जा सकेगी . यदि सूरज बादलों से ढ़का हो तो एक साइकिल चलाकर बैटरी रिचार्ज की जा सकने का प्रावधान भी किया गया है . पूर्व क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी के प्रबंध संचालक श्री सुखवीर सिंह जो एक आई ए एस अधिकारी हैं , ने इस पहल पर कहा कि आने वाला समय वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों के बेहतर इस्तेमाल का होगा . अजय चौधरी और रजनीकांत यादव ने बहुत सराहनीय काम किया है. शहरी बिजली उपभोक्ताओं को भी इस दिशा में सोचना होगा. इससे बिजली की मांग कम होगी तथा मांग और आपूर्ति के अंतर को मिटाने में सहायता मिलेगी .

फिल्म देखकर बना ली बिजली
जम्मू में किश्तवाड़ का गुलाबगढ़ इलाका , जम्मू से ३०० किमी दूर है . आसपास 20 किमी तक कोई बसाहट नहीं , सड़क भी नहीं . करीब 22 हजार की आबादी बिजली न होने से अंधेरे में रहती है. लेकिन यहां के युवा ध्यान सिंह ने घर के पास से गुजरने वाली पहाड़ी नदी की धारा से खराब चक्की का उपयोग कर पनबिजली यंत्र बनाया और बिजली बना ली.
गुलाबगढ़ के चशोती गांव में ध्यान सिंह और जोगिन्दर के घर इस स्वउत्पादित पन बिजली से रोशन हैं . शहर किसी काम से आए ध्यान सिंह ने ‘स्वदेश’ फिल्म में शाहरुख खान को बिजली तैयार करते देखा. किताबों में भी पढ़ा था कि पानी से बिजली तैयार की जाती है. आखिर मेहनत रंग लाई . अब घर के अन्य काम भी इसी पनबिजली परियोजना से तैयार बिजली से हो रहे हें. उन्हें मलाल है कि सीमित साधनों की वजह से बाकी गांव को इसका लाभ नहीं पहुंचा सकते. घर में खराब पड़ी चक्की में डेढ़ वर्ष पहले उन्होने डायनामो लगाया व उसी से बिजली तैयार की . इस परिवार ने घर के अलावा मंदिर में बिजली दी हुई है. घर में डिश टीवी समेत इलैक्ट्रानिक सामान का खूब इस्तेमाल करते हैं. पंच बनने के बाद ध्यान सिंह ने प्रयास किए हैं कि क्षेत्र में पानी के पर्याप्त संसाधन मौजूद हैं जिनके दोहन से इलाके को रोशन किया जा सकता है .

समुद्र की लहरों से स्पेन में बिजली
हालांकि यह प्रक्रिया थोड़ी महंगी है, लेकिन कंपनी का कहना है कि तटीय इलाकों के लिए यह तकनीक अच्छी है. दक्षिणी स्पेन में दुनिया के पहले वाणिज्यिक लहर ऊर्जा संयंत्र की शुरुआत हो गई. भारी लागत होने के बावजूद इस संयंत्र से दक्षिणी स्पेन के एक शहर को बिजली की सप्लाई भी हो रही है . यह प्लांट अन्य तटीय इलाकों के लिए एक मॉडल साबित हो सकता है. स्पेन के इस छोटे से तटीय शहर मुत्रिको को देखकर यह कहना मुश्किल है कि इस शहर में हाईटेक पावर प्लांट भी लग सकता है . लेकिन सैन सेबास्टियन से 30 किलोमीटर दूर बास्के शहर के 600 लोगों को समुद्र की लहरों से बनने वाली बिजली मिल रही है.
क्या है तकनीक ?
बास्के शहर के संयंत्र में काम करने वाले ऊर्जा इंजीनियर खोजे इगनाशियो होर्माएचे कहते हैं, ‘जब लहरों से ऊर्जा बनाने की बात आएगी तो लोग मुत्रिको का हवाला देंगे . ‘ वह कहते हैं कि लहरों से ऊर्जा बनाने का यह पहला वाणिज्यिक ऑपरेशन है जिससे ग्राहकों को बिजली मिलती है. यह संयंत्र बंदरगाह की दीवार से टकराने वाली लहरों से ऊर्जा बनाती है. बिजली बनाने वाली कंपनी एंटे वास्को दे ला एनर्जिया (ईवीई) ने बंदरगाह और समुद्र के बीच बनी दीवार में 16 गड्ढे बनाए हैं. जब लहरें इन गड्ढों में पानी लेकर आती हैं तो टरबाइन से हवा को धक्का दिया जाता है और बिजली पैदा होती है. इस प्लांट में 300 किलोवॉट बिजली बनती है जिससे शहर की 10 फीसदी जरूरत पूरी होती है. इस प्लांट को बनाने में 70 लाख यूरो की लागत आई है. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतर सरकारी पैनल का अनुमान है कि लहरों से बनने वाली बिजली विश्व की 30 फीसदी ऊर्जा मांग को पूरा कर सकती है . लेकिन अक्षय ऊर्जा के और स्थापित तकनीक के मुकाबले में लहरों से बनने वाली बिजली की तकनीक प्रारंभिक अवस्था में है.
बैक्टीरिया रोशन करेंगे शहर
वास्तुविद एक ऐसे शहर का सपना देख रहे हैं, जहाँ आकाश सफेद और नीले प्रकाश से जगमगा रहा हो. ऐसा शहर जो कार्बन सोखता हो और रोशनी के लिए मछलियों में पाए जाने वाले बैक्टीरिया का इस्तेमाल कर रहा हो. लंदन के यूनिवर्सिटी कॉलेज की शोधकर्ता डॉ. रेशल आर्मस्ट्रांग का मानना है कि कम ऊर्जा की खपत के लिए बैक्टीरिया का इस्तेमाल किया जा सकता है. ये बैक्टीरिया नीली-हरी चमक पैदा करते हैं. इमारतों और साइन बोर्डों को चमकीले बैक्टीरिया की परतों से कवर किया जा सकता है. एक दूसरी दिलचस्प संभावना बैक्टीरिया को फोटोसिंथेसिस की प्रक्रिया से गुजारने की है ताकि वे कार्बन डाई ऑक्साइड हजम कर सूरज की रोशनी को ऊर्जा में तब्दील कर सकें . वैज्ञानिकों ने फोटोसिंथेसिस के लिए बैक्टीरिया की कई किस्मों की पहचान की है. डॉ. रेशल आर्मस्ट्रांग की शोधकर्ता टीम वायुमंडल से कार्बन डाई ऑक्साइड सोखने के लिए सायनोबैक्टीरिया यानी ग्रीन एलगी के इस्तेमाल की संभावना पर भी विचार कर रही है .
गंदे नाले के पानी से बिजली बनाने का दावा
उत्तरप्रदेश के हापुड़ में रहने वाले रामपाल नाम के एक मिस्त्री ने गंदे नाले के पानी से बिजली बनाने का दावा किया है. उसने यह जानकारी संबंधित अधिकारियों को दी. सराहना की बजाय उसे हर जगह मिली फटकार .आखिरकार रामपाल ने अपना घर साठ हजार रुपए में गिरवी रख दिया और गंदे पानी से ही दो सौ किलो वॉट बिजली पैदा करके दिखा दी. रामपाल का यह कारनामा किसी चमत्कार से कम नहीं है. जब पूरा देश बिजली की कमी से बेमियादी कटौती की हद तक जूझ रहा है, तब इस वैज्ञानिक उपलब्धि को उपयोगी क्यों नहीं माना जाता? जबकि इस आविष्कार के मंत्र में गंदे पानी के निस्तारण के साथ बिजली की आसान उपलब्धता जुड़ी है.
बात चाहे कूड़े की हो, या फिर संड़ाध भरे पानी की, वैज्ञानिक तरीका अपनाकर उसका बेहतर उपयोग किया जा सकता है . अमेरिका के शोधकर्ताओं व वैज्ञानिकों ने हाल ही में मल-मूत्र व अन्य गंदे पानी के उपयोग का समर्थन किया है . नाला-नालियों, पोखरों व नदियों में अरबों गैलन बह जाने वाले गंदे व बदबूदार पानी का उपयोग ऊर्जा उत्पादन में किया जा रहा है . वैज्ञानिकों का मानना है कि साफ सुथरे पानी की तुलना में गंदे पानी से 20 प्रतिशत अधिक ऊर्जा का उत्पादन किया जा सकता है. सीवर के पानी का सर्वाधिक उपयोग अमेरिका में करके बिजली बनायी जा रही है. विशेषज्ञों के मुताबिक अमेरिका में हर साल औसतन 14 ट्रिलियन गैलन गंदे पानी का उपयोग ऊर्जा बनाने के लिए किया जा रहा है. अमेरिकी शोधकर्ता एलिजाबेथ एस. हैड्रिक कहती हैं ‘गंदे पानी का उपयोग ऊर्जा बनाने में बेहतर साबित हुआ है.’ अमेरिका में बिजली की कुल खपत में करीब डेढ़ प्रतिशत सीवर व अन्य गंदे पानी से बन रही बिजली से पूर्त की जा रही है. शोध व अध्ययन के नतीजे बताते हैं, एक गैलन गंदे व बेकार पानी से पांच मिनट तक सौ वॉट का बल्ब आसानी से जलाया जा सकता है. इतना ही नहीं, सीवरेज व गंदे पानी में मौजूद कार्बनिक अणुओं को ईधन में भी बदला जा सकता है जिसका उपयोग अन्य कई क्षेत्रों में किया जा सकता है. यह शोध देश दुनिया के लिए बेहद महत्वपूर्ण है. आज भी अरबों गैलन सीवरेज व अन्य गंदा पानी नाला-नालियों, तालाबों व नदियों में बहाया जाता है क्योंकि इसे व्यर्थ समझा जाता है. गंदे जल के शुद्धीकरण में वैज्ञानिक तकनीक का उपयोग होने से नदियों का प्रदूषण भी काफी हद तक कम हो सकता है .साथ ही पर्यावरण संरक्षण को बल मिलेगा. इसके लिए सरकार, सामाजिक संस्थाओं व वैज्ञानिकों को सार्थक पहल करनी होगी ताकि घरेलू गंदे पानी का उपयोग बिजली बनाने व अन्य उपयोग के लिए किया जा सके. अपने देश में केवल दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार व पश्चिम बंगाल को ही देखें तो अरबों गैलन सीवरेज हर दिन सीधे गंगा व यमुना नदियों में गिरता है जिससे इन नदियों का प्रदूषण लगातार बढ़ता जा रहा है .गंदे जल का शोधन किया जाये तो गंगा-यमुना जैसी नदियों का प्रदूषण ता रोका ही जा सकता है, इससे अरबों की धनराशि बचेगी जिसे नदियो के शुद्धिकरण की योजनाओ हेतु व्यय किया जा रहा है .

कोल्हू के बैल बनायेंगे बिजली
गुजरात के वडोदरा जिले के छोटाउदयपुर क्षेत्र के 24 जनजातीय गांवों में एक अनोखा प्रयोग चल रहा है, जिसके अंतर्गत बैलों की शक्ति से बिजली बन रही है .बिजली निर्माण की यह नई तकनीक श्री कांतिभाई श्रोफ के दिमाग की उपज है और इसे श्रोफ प्रतिष्ठान का वित्तीय समर्थन प्राप्त है . श्री कांतिभाई एक सफल उद्योगपति एवं वैज्ञानिक हैं. इस खोज से एक नया नवीकरणीय उर्जा स्रोत प्रकट हुआ है. इस विधि में बैल एक अक्ष के चारों ओर एक दंड को घुमाते हैं. यह दंड एक गियर-बक्स के जरिए जनित्र के साथ जुड़ा होता है. इस विधि से बनी बिजली की प्रति इकाई लागत लगभग चार रुपया है जबकि धूप-पैनलों से बनी बिजली की प्रित इकाई लागत हजार रुपया होता है और पवन चक्कियों से बनी बिजली का चालीस रुपया होता है. अभी गियर बक्से का खर्चा लगभग 40,000 रुपया आता है, पर इसे घटाकर लगभग 1500 रुपया तक लाने की काफी गुंजाइश है, जो इस विधि के व्यापक पैमाने पर अपनाए जाने पर संभव होगा.बैलों से बिजली निर्माण की पहली परियोजना गुजरात के कलाली गांव में चल रही है. बैलों से निर्मित बिजली से यहां चारा काटने की एक मशीन, धान कूटने की एक मशीन और भूजल को ऊपर खींचने का एक पंप चल रहा है.कृषि में साधारणतः बैलों की जरूरत साल भर में केवल 90 दिनों के लिए ही होती है. बाकी दिनों उन्हें यों ही खिलाना पड़ता है. यदि इन दिनों उन्हें बिजली उत्पादन में लगाया जाए तो उनकी खाली शक्ति से बिजली बनाकर अतिरिक्त मुनाफा कमाया जा सकता है.

मंगलटर्बाइन पम्प
उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले के भैलोनी लोध गांव के रहने वाले मंगल सिंह ने ‘मंगल टर्बाइन’ बना डाला है. यह सिंचाई में डीजल और बिजली की कम खपत का बड़ा व देशी उपाय है. मंगल सिंह ने अपने इस अनूठे उपकरण का पेटेंट भी करा लिया है . यह चक्र उपकरण-जल धारा के प्रवाह से गतिशील होता है और फिर इससे आटा चक्की, गन्ना पिराई और फिर इससे आटा चक्की, गन्ना पिराई और चारा-कटाई मशीन आसानी से चल सकती है . इस चक्र की धुरी को जेनरेटर से जोड़ने पर बिजली का उत्पादन भी शुरू हो जाता है. अब इस तकनीक का विस्तार बुंदेलखण्ड क्षेत्र में तो हो ही रहा है, उत्तराखंड में भी इसका इस्तेमाल शुरू हो गया है. पहाड़ पर पेयजल भरने की समस्या से छूट दिलाने के लिए नलजल योजना के रूप में इस तकनीक का प्रयोग सुदूर गांव में भी शुरू हो गया है.
लीक से हटकर सोचने और कर दिखाने की जरूरत है …
७५००० रुपयो की जगह मात्र २०००० रुपये में बनाया गया बिजली वितरण ट्रास्फारमर के साथ लगने वाला बेहतर कटआफ बाक्स , इसमें पोर्सलीन कट आउट की जगह सीधे फ्यूज तार जोड़ा जायेगा कनेक्टिंग हुक में और इस तरह तांबे के भीतरी पार्ट्स होने के कारण दूर दराज के क्षेत्रो में कटआउट चोरी जाने की समस्या से भी निजात मिल सकेगी . म. प्र. पूर्व क्षेत्र विद्युत वितरण कम्पनी के श्री भद्रराय के इस नवोन्मेषी प्रयास को कम्पनी प्रबंधन ने गणतंत्र दिवस पर उन्हें सम्मानित करके सराहा है .

जमीन पर पार्क, नीचे विद्युत सब स्टेशन
बिजली उत्पादन ही नही वितरण के क्षेत्र में भी अभिनव प्रयोग हो रहे हैं , इसी का नमूना है दिल्ली मेट्रो द्वारा राष्ट्रपति भवन के ठीक पीछे चर्च रोड पर राजधानी का पहला भूमिगत और एकदम अनोखा विद्युत सब स्टेशन . यह विद्युत उपकेंद्र विद्युत इंजीनियरिंग का एक नया नमूना है. दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन के निदेशक (इलेक्ट्रिक) सतीश कुमार ने इस सब स्टेशन को गुरुवार को पत्रकारों को दिखाते हुए बताया कि पथरीला इलाका होने और अति विशिष्ट क्षेत्र होने के कारण इसे बनाते समय बहुत अधिक ऐहतियात बरती गई। उन्होंने कहा कि स्टेशन बनाने से योजनाकारों ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि इसका कोई भी हिस्सा स़ड़क से नहीं दिखाई देना चाहिए . श्री कुमार ने बताया कि दिल्ली परिवहन निगम के केंद्रीय सचिवालय टर्मिनल की भूमि पर एक पार्क के २० फुट नीचे साठ करो़ड़ रुपए की लागत से लगभग सवा साल के रिकॉर्ड समय में बनकर तैयार हुए इन दो सब स्टेशनों से दिल्ली मेट्रो की बदरपुर लाइन और एयरपोर्ट एक्सप्रेस लाइन को बिजली दी जाती है. साथ-साथ बने इन स्टेशनों के अलग-अलग कंट्रोल रूम हैं और आपात स्थिति में ये एक दूसरी लाइन को बिजली दे सकते हैं. इन दोनों की क्षमता ६६ किलोवॉट है.

उपरोक्त नवाचारी विचारो को व्वसायिक रूप से प्रयोग हेतु व्यापक जन समर्थन की आवश्यकता है , और यह सब अब भी सरकार के हाथो में है . नवकरणीय उर्जा मंत्रालय बनाये गये हैं , युवा वैज्ञानिको को प्रेरित किये जाने और नई सोच को क्रियांवित किये जाने की बहुत आवश्यकता दिखती है .

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