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इर्द गिर्द बिखरा यथार्थ

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हर शख्स एक उपन्यास

घर के सामने एक मैदान है । सरकारी कालोनियो में ही तो बची है अब खुली जगह वरना आड़े टेढ़े प्लाटो पर भी मकान उगा दिए गए हैं । प्रायः शामो में किसी शादी या रिसेप्शन के लिए रंगीन प्रकाश से नहाये हुए टेंट तन जाते है मैदान में । देर रात टेंट हट जाते हैं , सुबह से मोहल्ले के ही नहीं दूर दूर से आये बच्चों के प्ले ग्राउंड में तबदील हो जाता है मैदान । बच्चे क्रिकेट खेलते हैं ।
महिलाये दोपहिये वाहन और कार चलाना भी सीखती हैं , यही । मैं घर के सामने छोटी सी बगिया में लगे झूले में बैठा ये तरह तरह के नजारे देखता रहता हूँ ।
मैदान के किनारे बचा हुआ है एक वृक्ष अभी भी , वरना शहर में तो वृक्षारोपण ही होते दीखते हैं वृक्ष नही ।
आज जब मैं बगिया में सुबह के अखबार के साथ ग्रीन टी का लुत्फ़ उठा रहा था तो नथुने एक बहुत पुरानी जानी पहचानी सी गन्ध से भर गए । गन्ध कण्डे के ताप में पकती हुई बाटी , और भुजंते हुए भटे की ।ठीक वही गन्ध जो दादी की रसोई से आती थी , जहां हमारा खेलते कूदते बाहर से सीधे आना वर्जित था । जहाँ दादी का अनुशासन चलता था , और हमें पीने का पानी लेने के लिए भी देहरी के बाहर से दादी को आवाज देनी पड़ती थी ।
मैं बाटी पकने की सोंधी गन्ध की तलाश में अनायास ही अखबार छोड़ गेट की तरफ बढ़ आया । देखा की मैदान के किनारे लगे पेड़ के नीचे एक रिक्शा खड़ा है , और वहीँ पास से धुँआ उठ रहा है । एक अधेड़ सा व्यक्ति कण्डे फूंक रहा था । मुझे अपनी ओर मुखातिब देख वह रिक्शेवाला एक बिसलरी की खाली बॉटल लिए हमारी तरफ चला आया पानी लेने । पत्नी गार्डेन में सिंचाई कर रही थी । उसने सटीक से बॉटल में पानी भर दिया । और रिक्शे वाले से बातें करने लगी । वार्तालाप से मुझे पता चला कि रिक्शेवाला पास के ही एक गाँव से है । वह 5 एकड़ जमीन का मालिक है । रिक्शा चलाकर ही उसने खेत में पम्प भी लगवा लिया है । पत्नी ने उससे पूछा अचार लोगे ? बिना उसकी स्वीकृति की प्रतीक्षा किये ही वह भीतर चली गई अचार लाने । अब बातचीत का सूत्र मैंने सम्भाला ।
मुझे पता चला की रिक्शे वाले के दो शादीशुदा बेटे हैं । बड़ा कोई काम नही करता, शराब पीकर पड़ा रहता है । छोटे का भी खेती में मन नही लगता वह हाइस्कूल तक पढ़ गया है और नोकरी करना चाहता है ।एक छोटी लड़की भी है रिक्शेवाली की , जो दसवी मे पढ़ती है , और उसकी शादी ही अब रिक्शेवाले की प्राथमिकता है । इसी लिए वह यह किराए का रिक्शा चलाकर दिन भर में 400 से 500 रूपये कमा लेता है ।
रात को रिक्शे पर ही सो जाता है ।कहीं बैठ कर बाटी भरता बना लेता है और इस तरह उसका दिन भर का भोजन हो जाता है
मैंने उसे बिन मांगी सलाह दी की वह खेती ही करे , उत्तर मिला काश्तकारी के लिए भी बहुत नगदी लगती है । मैंने कहा सरकारी ऋण ले लो , कान पकड़ते हुए उसने तौबा कर ली । उसके अनुभव के सम्मुख उसे समझा पाने में मैं असमर्थ रहा । तब तक पत्नी अचार तथा एक पीस मिठाई ले आई थी और मुझे बातचीत रोकनी पड़ी । पत्नी के चेहरे पर बिना मांगे किसी को कुछ दे पाने का सुख झलक रहा था , और रिक्शे वाले के चेहरे पर मुस्कान थी ।
मैं रिक्शेवाला उपन्यास बन सकता हूँ , इतना कलेवर तो मुझे मिल गया था , इस छोटी सी बातचीत से । पर इतना लिखने का समय कहाँ है अभी मेरे पास । और मैं लिख भी दूँ तो आपके पास इतना पढ़ने का समय नही है आज । हाँ मैंने रिक्शेवाले की आसमान की छत वाली रसोई तक पहुंच कर उसकी एक फोटो जरूर ले ली है मैंने जो साझा कर रहा हूँ

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